धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान का हिस्सा माना गया है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है।
धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान का हिस्सा माना गया है: सुप्रीम कोर्ट
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नई दिल्ली: भारतीय संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है।

जस्टिस संजीव खन्ना और संजय कुमार की पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' को पश्चिमी नजरिए से देखने की जरूरत नहीं है।

पीठ ने कहा, "समाजवाद का मतलब यह भी हो सकता है कि अवसरों की समानता हो और देश की संपत्ति का समान वितरण हो। आइए पश्चिमी अर्थ न लें। इसके कुछ अलग अर्थ भी हो सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता शब्द के साथ भी यही बात है।"

याचिकाकर्ताओं में से एक भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि 1976 में प्रस्तावना में शामिल किए गए दो शब्द मूल प्रस्तावना की तारीख नहीं दर्शाते हैं, जिसे 1949 में तैयार किया गया था। इसके बाद पीठ ने मामले की सुनवाई नवंबर के तीसरे सप्ताह में तय की। शीर्ष अदालत स्वामी, वकील बलराम सिंह, करुणेश कुमार शुक्ला और अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।

स्वामी ने अपनी याचिका में कहा था कि आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से प्रस्तावना में शामिल किए गए ये दो शब्द 1973 में 13 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा प्रसिद्ध केशवानंद भारती फैसले में प्रतिपादित मूल संरचना सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं, जिसके द्वारा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को संविधान की मूल विशेषताओं के साथ छेड़छाड़ करने से रोक दिया गया था।

स्वामी ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने संविधान में इन दो शब्दों को शामिल करने को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था और आरोप लगाया था कि इन दो शब्दों को नागरिकों पर थोपा गया, जबकि संविधान निर्माताओं का कभी भी लोकतांत्रिक शासन में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष अवधारणाओं को शामिल करने का इरादा नहीं था।

यह तर्क दिया गया कि इस तरह का समावेश अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति से परे है।

इसके अलावा यह भी कहा गया कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने इन शब्दों को शामिल करने को अस्वीकार कर दिया था क्योंकि संविधान नागरिकों से उनके चुनने के अधिकार को छीनकर उन पर कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ नहीं थोप सकता।

राज्यसभा सांसद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बिनॉय विश्वम ने भी स्वामी की याचिका का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और कहा था कि ‘धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद’ संविधान की अंतर्निहित और बुनियादी विशेषताएँ हैं। (एएनआई)

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